गजल
समन्दर हे सामाने प्यासा हुँ मे।
हर दिन नैइ एक आसा हुन मे।
अछा लगता हे खुद्से बात् कर्ना,
पीता हुन् खुद्को नसा हुँ मे।
जिन्दा हुँ आज खुदाकी दुवाँ से,
लग्ता था कभीकभी सजा हुँ मे।
मिलेगा नही समझने वाला कोही,
अलगसी एक नैइ भाषा हुँ मे।
फरक हे मेरा जिनेका अन्दाज्,
यिस जमानेके लिये तमासा हुँ मे।
किताब आएगा तो पढ्ना जरूर,
कहानी गजबकी एक् मजा हुँ मे।
समन्दर हे सामाने प्यासा हुँ मे।
हर दिन नैइ एक आसा हुन मे।
सुरेश 'ज्योतिपुण्ज'
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment